बहुभागीय पुस्तकें >> तोड़ो, कारा तोड़ो - 4 तोड़ो, कारा तोड़ो - 4नरेन्द्र कोहली
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चौथा खंड ‘निर्देश’
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प्रस्तुत हैं पुस्तक के कुछ अंश
पिछले दस वर्षों में लोकप्रियता के नए कीर्तिमान स्थापित करने वाली रचना
तोड़ो, कारा तोड़ो नरेन्द्र कोहली की नवीनतम उपन्यास-श्रृंखला है। यह
शीर्षक रवीन्द्रनाथ ठाकुर के गीत की एक पंक्ति का अनुवाद है; किंतु
उपन्यास का संबंध स्वामी विवेकानन्द की जीवनकथा से है। स्वामी विवेकानन्द
का जीवन बंधनों तथा सीमाओं के अतिक्रमण के लिए सार्थक संघर्ष थाः बंधन
चाहे प्रकृति के हों, समाज के हों, राजनीति के हों, धर्म के हों, अध्यात्म
के हों। नरेन्द्र कोहली के ही शब्दों में, ‘‘स्वामी
विवेकानन्द के व्यक्तित्व का आकर्षण...आकर्षण नहीं, जादू....जादू जो सिर
चढ़कर बोलता है। कोई संवेदनशील व्यक्ति उनके निकट जाकर सम्मोहित हुए बिना
नहीं रह सकता।...और युवा मन तो उत्साह से पागल ही हो जाता है। कौन-सा गुण
था, जो स्वामी जी में नहीं था। मानव के चरम विकास की साक्षात् मूर्ति थे
वे। भारत की आत्मा...और वे एकाकार हो गये थे। उन्हें किसी एक युग, प्रदेश
संप्रदाय अथवा संगठन के साथ बाँध देना अज्ञान भी है और अन्याय
भी।’’ ऐसे स्वामी विवेकानन्द के साथ तादात्म्य किया
है
नरेन्द्र कोहली ने। उनका यह उपन्यास ऐसा ही तादात्म्य करा देता है, पाठक
का उस विभूति से।
इस बृहत् उपन्यास का प्रथम खंड ‘निर्माण’ स्वामी जी के व्यक्तित्व के निर्माण के विभिन्न आयामों तथा चरणों की कथा कहता है। इसका क्षेत्र उनके जन्म से लेकर श्री रामकृष्ण परमहंस तथा जगन्माता भवतारिणी के सम्मुख निर्द्वंद्व आत्मसमर्पण तक की घटनाओं पर आधृत है।
दूसरा खंड ‘साधना’ में अपने गुरु के चरणों में बैठकर की गयी साधना और गुरु के देह-त्याग के पश्चात् उनके आदेशानुसार, अपने गुरुभाइयों को एक मठ में संगठित करने की कथा है।
तीसरे खंड ‘परिव्राजक’ में उनके एक अज्ञात संन्यासी के रूप में, कलकत्ता से द्वारका तक के भ्रमण की कथा है।
‘निर्देश’, ‘तोड़ो, कारा तोड़ो’ का चौथा खंड है।
द्वारका में सागर-तट पर बैठकर स्वामी विवेकानन्द ने भारत-माता की दुर्दशा पर अश्रु बहाए थे। वे एक नया संकल्प लेकर उठे और वडोदरा के महाराज गायकवाड़ से मिलने के लिए आए। वे अनुभव कर रहे थे कि उन्हें अलौकिक निर्देश मिल रहे हैं कि वे एक विशेष लक्ष्य से इस संसार में आए हैं।
विभिन्न देशी राज्यों और रजवाड़ों में होते हुए वे कन्याकुमारी पहुँचे, जहाँ उन्होंने अपनी तीन दिनों की समाधि में जगदंबा और भारत माता के दर्शन एक साथ किए। अंततः वे इस निष्कर्ष पर पहुँचे कि उन्हें अपने मोक्ष के लिए तपस्या करने के स्थान पर भारतमाता और उनकी संतानों की सेवा करनी है।
रामेश्वरम् के दर्शन कर वे मद्रास पहुँच गए। मद्रास में नव युवकों के एक संगठित दल ने उन्हें शिकागो में होने वाली धर्मसंसद में भेजने का निश्चय किया और उसके लिए तैयारी आरंभ कर दी। किंतु स्वामी जी इस बात पर अड़े हुए थे कि वे अपनी इच्छा से नहीं, माँ के आदेश से शिकागो जाएँगे। अतः माँ अपनी इच्छा प्रकट करे। अंततः माँ ने अपनी इच्छा का ‘निर्देश’ किया। स्वामी जी ने शिकागो तक की यात्रा की। स्वामीजी और उनको भेजने वाले शिष्य-दोनों ही अनुभवहीन थे। अतः स्वामी जी अनेक प्रकार की कठिनाइयों में फँस गए, किंतु जगदंबा ने उनके लिए ऐसी व्यवस्था कर दी कि वे संसद में भाग ले सके और विदेशियों तथा विधर्मियों द्वारा भारतमाता की छवि पर पोते गए अपमान के कीचड़ को धोकर उसके सौंदर्य को संसार के सम्मुख प्रस्तुत कर सके। इस सफलता ने स्वामी जी को अनेक मित्र और अनेक शक्तिशाली शत्रु दिए। उन्हें परेशान किया गया, कलंकित किया गया और अंततः उनकी हत्या का प्रयत्न किया गया। स्वामी जी ने जगदंबा के निर्देश, अपने गुरु के संरक्षण और अपने संकल्प से उन सब कठिनाइयों का सामना किया और संसार को भारत का संदेश देने में जुट गए।
स्वामी विवेकानन्द का जीवन निकट अतीत की घटना है। उनके जीवन की प्रायः घटनाएँ सप्रमाण इतिहासांकित हैं। यहाँ उपन्यासकार के लिए अपनी कल्पना अथवा अपने चितंन को आरोपित करने की सुविधा नहीं है। उपन्यासकार को वही कहना होगा, जो स्वामी जी ने कहा था। अपने नायक के व्यक्तित्व और चिंतन से तादाम्त्य ही उसके लिए एक मात्र मार्ग है।
नरेन्द्र कोहली ने अपने नायक को उनकी परंपरा तथा उनके परिवेश से पृथक कर नहीं देखा। स्वामी विवेकानन्द ऐसे नायक हैं भी नहीं, जिन्हें अपने परिवेश से अलग-थलग किया जा सके। वे तो जैसे महासागर के किसी असाधारण ज्वार के उद्दामतम चरम अंश थे। तोड़ो, कारा तोड़ो उस ज्वार को पूर्ण रुप से जीवंत करने का औपन्यासिक प्रयत्न है, जो स्वामी जी को उनके पूर्वापर के मध्य रखकर ही देखना चाहता है। अतः इस उपन्यास के लिए न श्री रामकृष्ण पराए हैं, न स्वामीजी के सहयोगी, गुरुभाई और न ही उनकी शिष्य-परंपरा की प्रतीक भगिनी निवेदिता।
इस बृहत् उपन्यास का प्रथम खंड ‘निर्माण’ स्वामी जी के व्यक्तित्व के निर्माण के विभिन्न आयामों तथा चरणों की कथा कहता है। इसका क्षेत्र उनके जन्म से लेकर श्री रामकृष्ण परमहंस तथा जगन्माता भवतारिणी के सम्मुख निर्द्वंद्व आत्मसमर्पण तक की घटनाओं पर आधृत है।
दूसरा खंड ‘साधना’ में अपने गुरु के चरणों में बैठकर की गयी साधना और गुरु के देह-त्याग के पश्चात् उनके आदेशानुसार, अपने गुरुभाइयों को एक मठ में संगठित करने की कथा है।
तीसरे खंड ‘परिव्राजक’ में उनके एक अज्ञात संन्यासी के रूप में, कलकत्ता से द्वारका तक के भ्रमण की कथा है।
‘निर्देश’, ‘तोड़ो, कारा तोड़ो’ का चौथा खंड है।
द्वारका में सागर-तट पर बैठकर स्वामी विवेकानन्द ने भारत-माता की दुर्दशा पर अश्रु बहाए थे। वे एक नया संकल्प लेकर उठे और वडोदरा के महाराज गायकवाड़ से मिलने के लिए आए। वे अनुभव कर रहे थे कि उन्हें अलौकिक निर्देश मिल रहे हैं कि वे एक विशेष लक्ष्य से इस संसार में आए हैं।
विभिन्न देशी राज्यों और रजवाड़ों में होते हुए वे कन्याकुमारी पहुँचे, जहाँ उन्होंने अपनी तीन दिनों की समाधि में जगदंबा और भारत माता के दर्शन एक साथ किए। अंततः वे इस निष्कर्ष पर पहुँचे कि उन्हें अपने मोक्ष के लिए तपस्या करने के स्थान पर भारतमाता और उनकी संतानों की सेवा करनी है।
रामेश्वरम् के दर्शन कर वे मद्रास पहुँच गए। मद्रास में नव युवकों के एक संगठित दल ने उन्हें शिकागो में होने वाली धर्मसंसद में भेजने का निश्चय किया और उसके लिए तैयारी आरंभ कर दी। किंतु स्वामी जी इस बात पर अड़े हुए थे कि वे अपनी इच्छा से नहीं, माँ के आदेश से शिकागो जाएँगे। अतः माँ अपनी इच्छा प्रकट करे। अंततः माँ ने अपनी इच्छा का ‘निर्देश’ किया। स्वामी जी ने शिकागो तक की यात्रा की। स्वामीजी और उनको भेजने वाले शिष्य-दोनों ही अनुभवहीन थे। अतः स्वामी जी अनेक प्रकार की कठिनाइयों में फँस गए, किंतु जगदंबा ने उनके लिए ऐसी व्यवस्था कर दी कि वे संसद में भाग ले सके और विदेशियों तथा विधर्मियों द्वारा भारतमाता की छवि पर पोते गए अपमान के कीचड़ को धोकर उसके सौंदर्य को संसार के सम्मुख प्रस्तुत कर सके। इस सफलता ने स्वामी जी को अनेक मित्र और अनेक शक्तिशाली शत्रु दिए। उन्हें परेशान किया गया, कलंकित किया गया और अंततः उनकी हत्या का प्रयत्न किया गया। स्वामी जी ने जगदंबा के निर्देश, अपने गुरु के संरक्षण और अपने संकल्प से उन सब कठिनाइयों का सामना किया और संसार को भारत का संदेश देने में जुट गए।
स्वामी विवेकानन्द का जीवन निकट अतीत की घटना है। उनके जीवन की प्रायः घटनाएँ सप्रमाण इतिहासांकित हैं। यहाँ उपन्यासकार के लिए अपनी कल्पना अथवा अपने चितंन को आरोपित करने की सुविधा नहीं है। उपन्यासकार को वही कहना होगा, जो स्वामी जी ने कहा था। अपने नायक के व्यक्तित्व और चिंतन से तादाम्त्य ही उसके लिए एक मात्र मार्ग है।
नरेन्द्र कोहली ने अपने नायक को उनकी परंपरा तथा उनके परिवेश से पृथक कर नहीं देखा। स्वामी विवेकानन्द ऐसे नायक हैं भी नहीं, जिन्हें अपने परिवेश से अलग-थलग किया जा सके। वे तो जैसे महासागर के किसी असाधारण ज्वार के उद्दामतम चरम अंश थे। तोड़ो, कारा तोड़ो उस ज्वार को पूर्ण रुप से जीवंत करने का औपन्यासिक प्रयत्न है, जो स्वामी जी को उनके पूर्वापर के मध्य रखकर ही देखना चाहता है। अतः इस उपन्यास के लिए न श्री रामकृष्ण पराए हैं, न स्वामीजी के सहयोगी, गुरुभाई और न ही उनकी शिष्य-परंपरा की प्रतीक भगिनी निवेदिता।
निर्देश
मणिभाई ने वह पत्र पढ़ा, एक बार स्वामी का चेहरा देखा और बिना कोई विशेष
प्रतिक्रिया व्यक्त किए बोले, एक व्यक्ति आपके साथ भेज देता हूँ। वह सारी
व्यवस्था कर देगा। मैं आकर देखूँगा। कोई त्रुटि रह जाए, तो मुझे बता
दीजिएगा।’’
मणिभाई ने हजूरी को संकेत किया। मुँह से कुछ कहा भी नहीं और चले गए।
स्वामी को कुछ आश्चर्य हुआ: मणिभाई ने न कुछ उनके विषय में पूछा था, न दीवान जी साहब के विषय में। उन्होंने परिचय बढ़ाना तो दूर, किसी औपचारिक बातचीत की भी आवश्यकता नहीं समझी थी।
हजूरी मंत्री का संकेत समझ गया। वडोदरा में सब ही जानते थे कि मंत्री महोदय अत्यंत मितभाषी हैं।
बोला, ‘‘आइए।’’
स्वामी अब भी सोच रहे थे : मणिभाई से उनकी यह भेंट दो मिनट की भी नहीं थी। मणिभाई ने दीवान जी साहब की इच्छा का पालन कर दिया था। राजकीय कर्त्तव्य के रूप में जूनागढ़ के दीवान के एक अतिथि के रहने की व्यवस्था कर दी थी। इससे अधिक न उन्हें स्वामी में कोई रुचि थी, न दीवान जी साहब में। वे अपने मन के भाव से नहीं, कर्त्तव्य-बुद्धि से काम कर रहे थे।
हजूरी उन्हें राजकीय विश्रामगृह में ले आया। प्रबंधक को बता दिया कि संन्यासी को मणिभाई ने भेजा है; और उनके लिए उत्तम व्यवस्था करने के लिए कहा है। इससे अधिक कुछ कहने की आवश्यकता नहीं थी। राजकीय अतिथि के लिए जो प्रबंध होता आया था, वह हो गया। किसी ने उनकी उपेक्षा नहीं की थी। किसी ने दीवान जी साहब की अवज्ञा नहीं की थी। किंतु नानडेड वाला भाव कहाँ था !
स्वामी अपने कक्ष में आ गए। अपने आप को कुछ व्यवस्थित पाया तो उनका मन पिछले कुछ दिनों की घटनाओं की जुगाली करने लगा।...
जूनागढ़ से विदा होकर उन्होंने रामेश्वरम् जाने का मन ही नहीं बना लिया था, पूरी तैयारी भी कर ली थी; किंतु दीवान जी साहब चाहते थे कि एक बार दक्षिण की ओर निकल जाने से पहले स्वामी नानडेड अवश्य जाएँ। नानडेड दीवान जी साहब का अपना नगर था। वहाँ उनका पैतृक भवन था उनका परिवार था। स्वामी उन सबसे मिले बिना रामेश्वरम् की ओर बढ़ गए तो दीवान जी साहब का सारा परिवार जन्म-जन्मों तक तृषित ही रह जाएगा। परिव्राजक का क्या पता है, वह फिर इस ओर लौटे न लौटे..। अपने परिवार के लोगों को स्वामी के दर्शन कराने में तो उनका निजी स्वार्थ था।.. किंतु वे उन्हें वडोदरा भी भेजना चाहते थे। महाराज सायाजी राव गायकवाड़ से उनका मिलना राष्ट्रीय हित में था। वडोदरा जाए बिना तो स्वामी को आगे बढ़ना ही नहीं चाहिए था।
दीवान जी साहब की ये कामनाएँ निरर्थक नहीं थीं। न उनमें कोई व्यक्तिगत स्वार्थ ही था, न सांसारिक महत्वाकांक्षा। स्वामी को भी प्रभु का कोई अदृष्ट निर्देश दिख रहा था, नहीं तो दीवान जी साहब इतनी हठ क्यों करते।
दीवान जी साहब ने स्वामी को नानडेड और वडोदरा में, कुछ लोगों के नाम, व्यक्तिगत पत्र दे दिए थे। एक पत्र वडोदरा के महत्वपूर्ण मंत्री मणिभाई जे.के नाम भी था। परिणामत: स्वामी इस समय मणिभाई के अतिथि थे।...
जूनागढ़ से स्वामी पलिताना आए थे। वहाँ जैन मतावलंबियों के तीर्थ शत्रुंजय पर्वत का आस्था की दृष्टि से बहुत महत्व है। वैसे समग्र रूप से पलिताना मंदिरों का नगर है। उनमें से अनेक तो ग्यारहवीं शती के बने हुए हैं; और कुछ उससे भी प्राचीन हैं। शत्रुंजय पर्वत के ऊपर हनुमान जी का एक मंदिर है। वहीं हंगार नाम के एक मुसलमान फकीर की दरगाह भी है।
उस सारे परिदृश्य पर विहंगम दृष्टि डालने के लिए स्वामी पर्वत के ऊपर चढ़े। दृश्य वस्तुत: बहुत सुंदर था। स्वामी को लगा कि वे आत्मलीन होते जा रहे हैं। मन जैसे अपने भीतर समाता जा रहा है और आनंद के सागर में गोते लगा रहा है। माँ का ऐसा सुंदर रूप सामने था। इच्छा होती थी, उसके चरणों में लोट-लोटकर गाएँ।
स्वामी को स्वयं पता नहीं लगा कि वे कब बैठ गए और गाने लगे। जगदंबा की स्तुति में जो कुछ स्मरण आया, वह सब गाया और फिर वे शिव की आराधना में डूब गए।
आत्मविस्मृति से बाहर निकले तो देखा : सामने एक बड़ी भीड़ एकत्रित हो गई थी। वे उठ खड़े हुए।
‘‘बंद क्यों कर दिया महाराज !’’ एक व्यक्ति ने कहा, ‘‘अभी तो आनंद आने लगा था।’’
‘‘जगदंबा का आदेश है कि आज का आनंदोत्सव यहीं तक होना चाहिए।’’ स्वामी हँसे, ‘वैसे मैं आपके आनंद के लिए तो नहीं गा रहा था।’’
‘‘कहाँ ठहरे हैं महाराज ?’’ एक ने पूछा।
‘‘जहाँ वह ठहरा दे।’’ स्वामी ने आकाश की ओर अंगुली उठा दी।
‘‘कहाँ जाना है ?’’
‘‘जाना तो रामेश्वम् है; किंतु किसी का आदेश है कि नानडेड होकर जाऊँ।’’ स्वामी ने कहा।
‘‘नानडेड कौन ऐसा दूर है महाराज ! दो दिन पलिताना में रुक जाएँ तो हम लोगों को भी इस संगीतमयी ईश्वरभक्ति का कुछ रस मिले। उस व्यक्ति ने कहा।
‘‘भक्तिरस के चटोरे हो ?’’ स्वामी ने उसकी ओर देखा, ‘‘तो कल प्रात: फिर आ जाना। यहीं ईश्वरभजन करेंगे।’’
‘‘मैं तो आ जाऊँगा महाराज ! किंतु नगर में ऐसे सैकड़ों लोग हैं, जो पहाड़ पर नहीं चढ़ सकते।’’ वह बोला, नगरमंदिर में संकीर्तन हो जाए।’’
‘‘संकीर्तन कहीं कर लीजिए महाराज ! किंतु जब तक पलिताना में रुकें सेवक के घर में जूठन गिराएँ।’’ एक और व्यक्ति बोला, ‘‘जहाँ आदेश होगा, ले चलूँगा। मंदिर में, धर्मशाला में, पर्वत की चोटी पर...अपनी पीठ पर बैठाकर ले चलूँगा।’’
‘‘इतने मोटे आदमी को पीठ पर लादकर ले चलोगे?’’ स्वामी हंस रहे थे।
‘‘ले चलूँगा महाराज !’’ वह बोला, ‘‘आज तक अखाड़े में जो पसीना बहाया है, वह और किस दिन काम आएगा !’’
तो यही निश्चित रहा, ‘‘स्वामी बोले, दो दिन पलिताना में रहूँगा और तुम्हारा अतिथि रहूँगा। तुम सबके लिए भगवद्भजन करूंगा। बहुत दिनों से अपने प्रभु को पुकारा नहीं है।
नानडेड में दीवान हरिदास बिहारीदास देसाई के परिवार का मकान खोजने में स्वामी को तनिक भी कठिनाई नहीं हुई। जिससे पूछा, वही उन्हें देसाई परिवार की हवेली तक पहुँचा आने के लिए तैयार था।
दीवान जी साहब के छोटे भाई ने स्वामी का स्वागत द्वार पर ही किया। वे थाली सजाकर लाए-धूप, दीप से अर्घ्य दिया। आरती उतारी। चरण धोए और घर के भीतर ले गए।...स्वामी की आँखों में अश्रु आ गए। उत्तर भारत में तो भगवान् की आरती भी कठिनाई से ही उतारी जाती थी, अतिथि की आरती उतारने की तो कल्पना भी नहीं की जा सकती।
घर के एक-एक सदस्य ने आकर चरण छुए। अपने अधिकार के रूप में आशीर्वाद लिया। उन लोगों को दीवान जी साहब ने स्वामी के विषय में सब कुछ बता रखा था। किसी ने उनका परिचय तक नहीं पूछा और उनको परिवार के एक अत्यंत आत्मीय और श्रद्धेय सदस्य के रूप में अंगीकार कर लिया।
भोजन कराकर वे लोग उन्हें विश्राम के लिए अकेला छोड़ गए।
वहाँ के प्रवास में वे अत्यंत व्यस्त रहे। घूमना-फिरना, लोगों से मिलना, चर्चा करना। परिवार के लोग इस प्रकार उनके साथ लगे रहे, जैसे घर में कोई उत्सव हो रहा हो; और परिवार का प्रत्येक सदस्य उसमें मनोयोगपूर्वक आकंठ डूबा हो। संसार के किसी और काम की ओर उन लोगों का ध्यान ही नहीं था।
बंबई के पहले स्वामी को वडोदरा जाना ही था। यह गायकवाड़ की राजधानी थी। वडोदरा के गायकवाड़ के विषय में स्वामी ने बहुत कुछ सुना था...
1875 में लार्ड नार्थब्रुक ने मल्हाराव को कुशासन के आरोप में अधिकारच्युत कर दिया था। मल्हाराव पर आरोप था कि उन्होंने अंग्रेज रेजिडेंट को, उनकी मदिरा में हीरों का चूर्ण मिलाकर पीने को दिया था, ताकि उनकी मृत्यु हो जाए। किंतु आरोप सर्वसम्पत्ति से प्रमाणित नहीं हो सका। जाँच समिति के तीन अंग्रेज सदस्यों ने माना कि मल्हाराव अपराधी थे। किंतु तीन भारतीय सदस्यों ने माना कि आरोप प्रमाणित करने के लिए पर्याप्त साक्षी नहीं है। मल्हाराव को अपराधी प्रमाणित नहीं किया जा सका, न ही उन्हें दंडित किया जा सका; किंतु उन्हें गद्दी से तो उतार ही दिया गया।
मल्हाराव के पूर्ववर्त्ती राजा खांडेराव की विधवा को फिर से अपना उत्तराधिकारी चुनने का अवसर दिया गया। उन्होंने किन्ही अज्ञात कारणों से सायाजी राव को अपना उत्तराधिकारी चुना। सायाजी उनके दूर के संबंधी थे और उस समय अपने निर्धन परिवार के साथ गाँव में रह रहे थे। जब रेजिडेंट ने सायाजी राव को सलामी देते हुए उन्हें वडोदरा के महामहिम गायकवाड़ महाराज के रूप में संबोधित किया उस समय सायाजी अपने घर के पास गली में अपने साथियों के साथ खेल रहे थे। रेजिंडेट ने बताया कि ब्रिटिश सरकार ने उन्हें वडोदरा के महाराज गायकवाड़ स्वीकार किया है और रेजिडेंट उन्हें खोजने और महलों में ले जाने के लिए आए हैं।
सायाजी वडोदरा आ गए। उन्हें उनकी किशोरावस्था में श्रेष्ठतम शिक्षा दी गई। तब तक रियासत का प्रबंध टी.माधव राव को सौंपा गया। माधव राव पहले त्रावनकोर के दीवान थे और भारत के सर्वश्रेष्ठ प्रशासकों में से एक माने जाते थे। वयस्क होने पर जब सायाजी ने रियासत की बागडोर अपने हाथ में ली, तब तक रियासत प्रगति के मार्ग पर अपनी यात्रा आरंभ कर चुकी थी। उन्होंने तत्काल सुधार आरंभ किए। ये सुधार रियासत के लोगों के परंपरागत आलस्य और रूढ़ियों के विरूद्ध थे और उन्हें तोड़ने वाले थे। उनसे अंग्रेजों के लाभ को भी क्षति पहुँचती थी। अंग्रेज कब चाहते थे कि भारत की जनता पढ़-लिखकर कुछ जागरूक बने; और सायाजी राव ने शिक्षा का ही विकास किया था। उन्होंने अपनी रियासत में पुस्तकालय-आंदोलन चलाया। अपनी प्रजा को औद्योगिक शिक्षा देने के लिए एक संस्थान खोला। स्त्रियों की शिक्षा और विकास के लिए विभिन्न प्रकार की संस्थाएँ खोलीं और पिछड़ी जातियों के मार्ग में से बाधाएँ हटाकर उनके विकास का मार्ग प्रशस्त किया। ग्रामों में चिकित्सा के लिए एक योजना आरंभ की। ये काम सुचारु रूप से हो सकें, उसके लिए आवश्यक था कि उन पर कड़ी दृष्टि रखी जाए। स्वयं महारानी महिला शिक्षा की संरक्षिका थीं। इससे स्पष्ट था कि सायाजी राव इस विषय में पर्याप्त गंभीर थे।
स्वामी ने देखा कि मणिभाई उनकी ओर आ रहे थे।
‘‘आप यह मत समझिएगा कि आप राजकीय अतिथिगृह में हैं। आप यही मानकर चलिए कि आप मेरे घर में है।’’ मणिभाई ने कहा, ‘‘मैं बहुत ईश्वरभीरू व्यक्ति हूँ, इसलिए आपको अपने घर में ठहराने का साहस नहीं कर सका। वहाँ आपको इतनी सुविधाएँ नहीं मिल सकती थीं। आपको पूजा-साधना के लिए एकांत की भी आवश्यकता होगी। मेरे घर में वह कहाँ ! वहाँ तो चौबीस घंटे किलकिल ही रहती है। बड़ा परिवार है हमारा।’’
स्वामी को आश्चर्य हुआ : यह मितभाषी मंत्री एक साथ कितना बोल गया !
‘‘कोई बात नहीं।’’ स्वामी ने कहा, ‘‘मैं यहाँ पर्याप्त सुख से हूँ।’’
‘‘और कोई सेवा हो तो बताएँ।’’
‘‘मैं महाराज सायाजी राव से मिलना चाहता हूँ।’’
मणिभाई जैसे स्तब्ध रह गए, ‘‘बड़ी कठिन आज्ञा दे दी आपने।’’
‘‘क्यों, वे किसी से मिलते नहीं ?’’
‘‘नहीं ! ऐसा तो नहीं है। संन्यासी तो हैं नहीं कि किसी से नहीं मिलेंगे। राजा हैं, सबसे मिलना ही पड़ता है।’’ मणिभाई बोले।
‘‘तो क्या आजकल बहुत व्यस्त हैं ?’’
‘‘ऐसी बात भी नहीं है।’’ मणिभाई बोले, ‘‘बात यह है कि वे अन्य भारतीय राजाओं से कुछ भिन्न हैं। वे अपने लिए नहीं प्रजा के लिए राज करते हैं। उनकी न तो अध्यात्म में रुचि है, न भोग में।’’
‘‘तो?’’
‘‘आप उनसे क्या बात करेंगे ?’’ मणिभाई बोले, ‘‘ न वे आपसे धर्मचर्चा करेंगे, न आप उनको भोग से विरत करने के लिए कोई उपदेश दे सकेंगे।’’
‘‘मैं उनसे प्रजा की शिक्षा के विषय में बात करना चाहता हूँ।’’
‘‘क्या कहेंगे कि पाठशालाओं में वेद पढ़ाओ ?’’
‘‘आप तो ऐसे कह रहे हैं, जैसे वेद पढ़ना कोई मूर्खता की बात है। पाठशालाओं में वेद पढ़े और समझे जाते तो भारत कभी पराधीन नहीं होता।’’ स्वामी बोले, ‘‘वेदों में अध्यात्म भी है; किंतु जीवन को समझने और उसके अनेक क्षेत्रों का ज्ञान भी बहुत है। यदि हमने वेदों से गणित पढ़ा होता, तो आज भी हम संसार के शीर्ष पर होते।’’
‘‘आप शिक्षाविद् हैं क्या ?’’
‘‘मैं तो एक संन्यासी हूँ।’’ स्वामी मुस्कराए, ‘‘किंतु संन्यासी भगवान् का चिंतन करते हुए, भगवान् के बनाए हुए जीवों के हित का भी चिंतन करता है। अत: शिक्षा के विषय में सोचना आवश्यक है।
‘‘पर हमारे राजा अपनी प्रजा की भौतिक उन्नति भी चाहते हैं।’’ मणिभाई ने कहा, ‘‘वे उसे ज्ञानी ही नहीं, संपन्न और समृद्ध भी देखना चाहते हैं।’’
‘‘मैं भी, वही चाहता हूँ।’’
मणिभाई स्तब्ध रह गए, ‘‘अच्छा ! मैं दीवान जी से इसकी चर्चा करता हूँ। आशा है, वे महाराज से आपकी भेंट का प्रबंध करा देंगे।’’
स्वामी को जिस समय सायाजी के साथ भेंट के लिए लाया गया, वे एक छोटे कमरे में अपने दीवान के साथ थे। एक प्रकार से वहाँ एकान्त ही था। स्वामी के मन में पहली बात यही आई कि सायाजी उनसे सार्वजनिक रूप से अपने दरबार में मिलना नहीं चाहते थे। इस भेंट में भी जैसे एक प्रकार की गोपनीयता थी।
‘‘आइए स्वामी जी, सायाजी राव गायकवाड़ अपने स्थान से उठ खड़े हुए। उन्होंने हाथ जोड़कर प्रणाम किया। संन्यासी के चरण नहीं छुए।
स्वामी ने हाथ उठाकर आशीर्वाद दिया, ‘‘यशस्वी हो राजन् ! भगवान् आपके हाथों प्रजा का कल्याण करवाएँ।’’
‘‘विराजिए।’’ सायाजी ने कहा, ‘‘आपके ठहरने की व्यवस्था में कोई त्रुटि तो नहीं है ?’’
‘‘कोई त्रुटि नहीं है। मैं बहुत सुख से हूँ। स्वामी बोले, मैं अपने लिए कुछ माँगने नहीं आया।
सायाजी ने कुछ आश्चर्य से स्वामी की ओर देखा, धर्मचर्चा करने आए हैं ? मेरी उसमें कोई रुचि नहीं है।
आया तो मैं धर्मचर्चा करने ही हूं।’’ स्वामी हँसे, ‘‘किंतु मोक्ष की चर्चा नहीं। मैं राजधर्म की चर्चा करने आया हूँ राजन् !’’
सायाजी चुपचाप उनकी ओर देखते रहे।
‘‘अंग्रेज हम पर शासन क्यों कर रहे हैं ?’’ स्वामी ने कहा, ‘‘वे अध्यात्म में तो हमसे उन्नत नहीं है।’’
‘‘ठीक कह रहे हैं आप।’’ सायाजी ने कहा, ‘‘वे भौतिक शक्ति में हमसे बढ़े-चढ़े हैं।’’
‘‘तो आप अपनी प्रजा के भौतिक विकास का प्रयत्न करें।’’ स्वामी जी बोले, ‘‘इसलिए कह रहा हूँ, क्योंकि हमारे भारतीय राजाओं को अपनी प्रजा के विकास से कहीं अधिक अंग्रेजों की प्रसन्नता की चिंता है। आप उनसे कुछ भिन्न हैं। आपने प्रजा को आधुनिक शिक्षा देने का प्रयत्न किया है।’’
प्राचीन भारतीय शिक्षा न देकर क्या मैंने अच्छा किया ?’’
‘‘गुरुकुल प्रणाली को भी पूर्णत: छोड़ना नहीं चाहिए। स्वामी बोले, न ही संस्कृत और आधुनिक भारतीय भाषाओं का त्याग करना चाहिए।’’
‘‘दोनों बातें कैसे संभव है ?’’
मणिभाई ने हजूरी को संकेत किया। मुँह से कुछ कहा भी नहीं और चले गए।
स्वामी को कुछ आश्चर्य हुआ: मणिभाई ने न कुछ उनके विषय में पूछा था, न दीवान जी साहब के विषय में। उन्होंने परिचय बढ़ाना तो दूर, किसी औपचारिक बातचीत की भी आवश्यकता नहीं समझी थी।
हजूरी मंत्री का संकेत समझ गया। वडोदरा में सब ही जानते थे कि मंत्री महोदय अत्यंत मितभाषी हैं।
बोला, ‘‘आइए।’’
स्वामी अब भी सोच रहे थे : मणिभाई से उनकी यह भेंट दो मिनट की भी नहीं थी। मणिभाई ने दीवान जी साहब की इच्छा का पालन कर दिया था। राजकीय कर्त्तव्य के रूप में जूनागढ़ के दीवान के एक अतिथि के रहने की व्यवस्था कर दी थी। इससे अधिक न उन्हें स्वामी में कोई रुचि थी, न दीवान जी साहब में। वे अपने मन के भाव से नहीं, कर्त्तव्य-बुद्धि से काम कर रहे थे।
हजूरी उन्हें राजकीय विश्रामगृह में ले आया। प्रबंधक को बता दिया कि संन्यासी को मणिभाई ने भेजा है; और उनके लिए उत्तम व्यवस्था करने के लिए कहा है। इससे अधिक कुछ कहने की आवश्यकता नहीं थी। राजकीय अतिथि के लिए जो प्रबंध होता आया था, वह हो गया। किसी ने उनकी उपेक्षा नहीं की थी। किसी ने दीवान जी साहब की अवज्ञा नहीं की थी। किंतु नानडेड वाला भाव कहाँ था !
स्वामी अपने कक्ष में आ गए। अपने आप को कुछ व्यवस्थित पाया तो उनका मन पिछले कुछ दिनों की घटनाओं की जुगाली करने लगा।...
जूनागढ़ से विदा होकर उन्होंने रामेश्वरम् जाने का मन ही नहीं बना लिया था, पूरी तैयारी भी कर ली थी; किंतु दीवान जी साहब चाहते थे कि एक बार दक्षिण की ओर निकल जाने से पहले स्वामी नानडेड अवश्य जाएँ। नानडेड दीवान जी साहब का अपना नगर था। वहाँ उनका पैतृक भवन था उनका परिवार था। स्वामी उन सबसे मिले बिना रामेश्वरम् की ओर बढ़ गए तो दीवान जी साहब का सारा परिवार जन्म-जन्मों तक तृषित ही रह जाएगा। परिव्राजक का क्या पता है, वह फिर इस ओर लौटे न लौटे..। अपने परिवार के लोगों को स्वामी के दर्शन कराने में तो उनका निजी स्वार्थ था।.. किंतु वे उन्हें वडोदरा भी भेजना चाहते थे। महाराज सायाजी राव गायकवाड़ से उनका मिलना राष्ट्रीय हित में था। वडोदरा जाए बिना तो स्वामी को आगे बढ़ना ही नहीं चाहिए था।
दीवान जी साहब की ये कामनाएँ निरर्थक नहीं थीं। न उनमें कोई व्यक्तिगत स्वार्थ ही था, न सांसारिक महत्वाकांक्षा। स्वामी को भी प्रभु का कोई अदृष्ट निर्देश दिख रहा था, नहीं तो दीवान जी साहब इतनी हठ क्यों करते।
दीवान जी साहब ने स्वामी को नानडेड और वडोदरा में, कुछ लोगों के नाम, व्यक्तिगत पत्र दे दिए थे। एक पत्र वडोदरा के महत्वपूर्ण मंत्री मणिभाई जे.के नाम भी था। परिणामत: स्वामी इस समय मणिभाई के अतिथि थे।...
जूनागढ़ से स्वामी पलिताना आए थे। वहाँ जैन मतावलंबियों के तीर्थ शत्रुंजय पर्वत का आस्था की दृष्टि से बहुत महत्व है। वैसे समग्र रूप से पलिताना मंदिरों का नगर है। उनमें से अनेक तो ग्यारहवीं शती के बने हुए हैं; और कुछ उससे भी प्राचीन हैं। शत्रुंजय पर्वत के ऊपर हनुमान जी का एक मंदिर है। वहीं हंगार नाम के एक मुसलमान फकीर की दरगाह भी है।
उस सारे परिदृश्य पर विहंगम दृष्टि डालने के लिए स्वामी पर्वत के ऊपर चढ़े। दृश्य वस्तुत: बहुत सुंदर था। स्वामी को लगा कि वे आत्मलीन होते जा रहे हैं। मन जैसे अपने भीतर समाता जा रहा है और आनंद के सागर में गोते लगा रहा है। माँ का ऐसा सुंदर रूप सामने था। इच्छा होती थी, उसके चरणों में लोट-लोटकर गाएँ।
स्वामी को स्वयं पता नहीं लगा कि वे कब बैठ गए और गाने लगे। जगदंबा की स्तुति में जो कुछ स्मरण आया, वह सब गाया और फिर वे शिव की आराधना में डूब गए।
आत्मविस्मृति से बाहर निकले तो देखा : सामने एक बड़ी भीड़ एकत्रित हो गई थी। वे उठ खड़े हुए।
‘‘बंद क्यों कर दिया महाराज !’’ एक व्यक्ति ने कहा, ‘‘अभी तो आनंद आने लगा था।’’
‘‘जगदंबा का आदेश है कि आज का आनंदोत्सव यहीं तक होना चाहिए।’’ स्वामी हँसे, ‘वैसे मैं आपके आनंद के लिए तो नहीं गा रहा था।’’
‘‘कहाँ ठहरे हैं महाराज ?’’ एक ने पूछा।
‘‘जहाँ वह ठहरा दे।’’ स्वामी ने आकाश की ओर अंगुली उठा दी।
‘‘कहाँ जाना है ?’’
‘‘जाना तो रामेश्वम् है; किंतु किसी का आदेश है कि नानडेड होकर जाऊँ।’’ स्वामी ने कहा।
‘‘नानडेड कौन ऐसा दूर है महाराज ! दो दिन पलिताना में रुक जाएँ तो हम लोगों को भी इस संगीतमयी ईश्वरभक्ति का कुछ रस मिले। उस व्यक्ति ने कहा।
‘‘भक्तिरस के चटोरे हो ?’’ स्वामी ने उसकी ओर देखा, ‘‘तो कल प्रात: फिर आ जाना। यहीं ईश्वरभजन करेंगे।’’
‘‘मैं तो आ जाऊँगा महाराज ! किंतु नगर में ऐसे सैकड़ों लोग हैं, जो पहाड़ पर नहीं चढ़ सकते।’’ वह बोला, नगरमंदिर में संकीर्तन हो जाए।’’
‘‘संकीर्तन कहीं कर लीजिए महाराज ! किंतु जब तक पलिताना में रुकें सेवक के घर में जूठन गिराएँ।’’ एक और व्यक्ति बोला, ‘‘जहाँ आदेश होगा, ले चलूँगा। मंदिर में, धर्मशाला में, पर्वत की चोटी पर...अपनी पीठ पर बैठाकर ले चलूँगा।’’
‘‘इतने मोटे आदमी को पीठ पर लादकर ले चलोगे?’’ स्वामी हंस रहे थे।
‘‘ले चलूँगा महाराज !’’ वह बोला, ‘‘आज तक अखाड़े में जो पसीना बहाया है, वह और किस दिन काम आएगा !’’
तो यही निश्चित रहा, ‘‘स्वामी बोले, दो दिन पलिताना में रहूँगा और तुम्हारा अतिथि रहूँगा। तुम सबके लिए भगवद्भजन करूंगा। बहुत दिनों से अपने प्रभु को पुकारा नहीं है।
नानडेड में दीवान हरिदास बिहारीदास देसाई के परिवार का मकान खोजने में स्वामी को तनिक भी कठिनाई नहीं हुई। जिससे पूछा, वही उन्हें देसाई परिवार की हवेली तक पहुँचा आने के लिए तैयार था।
दीवान जी साहब के छोटे भाई ने स्वामी का स्वागत द्वार पर ही किया। वे थाली सजाकर लाए-धूप, दीप से अर्घ्य दिया। आरती उतारी। चरण धोए और घर के भीतर ले गए।...स्वामी की आँखों में अश्रु आ गए। उत्तर भारत में तो भगवान् की आरती भी कठिनाई से ही उतारी जाती थी, अतिथि की आरती उतारने की तो कल्पना भी नहीं की जा सकती।
घर के एक-एक सदस्य ने आकर चरण छुए। अपने अधिकार के रूप में आशीर्वाद लिया। उन लोगों को दीवान जी साहब ने स्वामी के विषय में सब कुछ बता रखा था। किसी ने उनका परिचय तक नहीं पूछा और उनको परिवार के एक अत्यंत आत्मीय और श्रद्धेय सदस्य के रूप में अंगीकार कर लिया।
भोजन कराकर वे लोग उन्हें विश्राम के लिए अकेला छोड़ गए।
वहाँ के प्रवास में वे अत्यंत व्यस्त रहे। घूमना-फिरना, लोगों से मिलना, चर्चा करना। परिवार के लोग इस प्रकार उनके साथ लगे रहे, जैसे घर में कोई उत्सव हो रहा हो; और परिवार का प्रत्येक सदस्य उसमें मनोयोगपूर्वक आकंठ डूबा हो। संसार के किसी और काम की ओर उन लोगों का ध्यान ही नहीं था।
बंबई के पहले स्वामी को वडोदरा जाना ही था। यह गायकवाड़ की राजधानी थी। वडोदरा के गायकवाड़ के विषय में स्वामी ने बहुत कुछ सुना था...
1875 में लार्ड नार्थब्रुक ने मल्हाराव को कुशासन के आरोप में अधिकारच्युत कर दिया था। मल्हाराव पर आरोप था कि उन्होंने अंग्रेज रेजिडेंट को, उनकी मदिरा में हीरों का चूर्ण मिलाकर पीने को दिया था, ताकि उनकी मृत्यु हो जाए। किंतु आरोप सर्वसम्पत्ति से प्रमाणित नहीं हो सका। जाँच समिति के तीन अंग्रेज सदस्यों ने माना कि मल्हाराव अपराधी थे। किंतु तीन भारतीय सदस्यों ने माना कि आरोप प्रमाणित करने के लिए पर्याप्त साक्षी नहीं है। मल्हाराव को अपराधी प्रमाणित नहीं किया जा सका, न ही उन्हें दंडित किया जा सका; किंतु उन्हें गद्दी से तो उतार ही दिया गया।
मल्हाराव के पूर्ववर्त्ती राजा खांडेराव की विधवा को फिर से अपना उत्तराधिकारी चुनने का अवसर दिया गया। उन्होंने किन्ही अज्ञात कारणों से सायाजी राव को अपना उत्तराधिकारी चुना। सायाजी उनके दूर के संबंधी थे और उस समय अपने निर्धन परिवार के साथ गाँव में रह रहे थे। जब रेजिडेंट ने सायाजी राव को सलामी देते हुए उन्हें वडोदरा के महामहिम गायकवाड़ महाराज के रूप में संबोधित किया उस समय सायाजी अपने घर के पास गली में अपने साथियों के साथ खेल रहे थे। रेजिंडेट ने बताया कि ब्रिटिश सरकार ने उन्हें वडोदरा के महाराज गायकवाड़ स्वीकार किया है और रेजिडेंट उन्हें खोजने और महलों में ले जाने के लिए आए हैं।
सायाजी वडोदरा आ गए। उन्हें उनकी किशोरावस्था में श्रेष्ठतम शिक्षा दी गई। तब तक रियासत का प्रबंध टी.माधव राव को सौंपा गया। माधव राव पहले त्रावनकोर के दीवान थे और भारत के सर्वश्रेष्ठ प्रशासकों में से एक माने जाते थे। वयस्क होने पर जब सायाजी ने रियासत की बागडोर अपने हाथ में ली, तब तक रियासत प्रगति के मार्ग पर अपनी यात्रा आरंभ कर चुकी थी। उन्होंने तत्काल सुधार आरंभ किए। ये सुधार रियासत के लोगों के परंपरागत आलस्य और रूढ़ियों के विरूद्ध थे और उन्हें तोड़ने वाले थे। उनसे अंग्रेजों के लाभ को भी क्षति पहुँचती थी। अंग्रेज कब चाहते थे कि भारत की जनता पढ़-लिखकर कुछ जागरूक बने; और सायाजी राव ने शिक्षा का ही विकास किया था। उन्होंने अपनी रियासत में पुस्तकालय-आंदोलन चलाया। अपनी प्रजा को औद्योगिक शिक्षा देने के लिए एक संस्थान खोला। स्त्रियों की शिक्षा और विकास के लिए विभिन्न प्रकार की संस्थाएँ खोलीं और पिछड़ी जातियों के मार्ग में से बाधाएँ हटाकर उनके विकास का मार्ग प्रशस्त किया। ग्रामों में चिकित्सा के लिए एक योजना आरंभ की। ये काम सुचारु रूप से हो सकें, उसके लिए आवश्यक था कि उन पर कड़ी दृष्टि रखी जाए। स्वयं महारानी महिला शिक्षा की संरक्षिका थीं। इससे स्पष्ट था कि सायाजी राव इस विषय में पर्याप्त गंभीर थे।
स्वामी ने देखा कि मणिभाई उनकी ओर आ रहे थे।
‘‘आप यह मत समझिएगा कि आप राजकीय अतिथिगृह में हैं। आप यही मानकर चलिए कि आप मेरे घर में है।’’ मणिभाई ने कहा, ‘‘मैं बहुत ईश्वरभीरू व्यक्ति हूँ, इसलिए आपको अपने घर में ठहराने का साहस नहीं कर सका। वहाँ आपको इतनी सुविधाएँ नहीं मिल सकती थीं। आपको पूजा-साधना के लिए एकांत की भी आवश्यकता होगी। मेरे घर में वह कहाँ ! वहाँ तो चौबीस घंटे किलकिल ही रहती है। बड़ा परिवार है हमारा।’’
स्वामी को आश्चर्य हुआ : यह मितभाषी मंत्री एक साथ कितना बोल गया !
‘‘कोई बात नहीं।’’ स्वामी ने कहा, ‘‘मैं यहाँ पर्याप्त सुख से हूँ।’’
‘‘और कोई सेवा हो तो बताएँ।’’
‘‘मैं महाराज सायाजी राव से मिलना चाहता हूँ।’’
मणिभाई जैसे स्तब्ध रह गए, ‘‘बड़ी कठिन आज्ञा दे दी आपने।’’
‘‘क्यों, वे किसी से मिलते नहीं ?’’
‘‘नहीं ! ऐसा तो नहीं है। संन्यासी तो हैं नहीं कि किसी से नहीं मिलेंगे। राजा हैं, सबसे मिलना ही पड़ता है।’’ मणिभाई बोले।
‘‘तो क्या आजकल बहुत व्यस्त हैं ?’’
‘‘ऐसी बात भी नहीं है।’’ मणिभाई बोले, ‘‘बात यह है कि वे अन्य भारतीय राजाओं से कुछ भिन्न हैं। वे अपने लिए नहीं प्रजा के लिए राज करते हैं। उनकी न तो अध्यात्म में रुचि है, न भोग में।’’
‘‘तो?’’
‘‘आप उनसे क्या बात करेंगे ?’’ मणिभाई बोले, ‘‘ न वे आपसे धर्मचर्चा करेंगे, न आप उनको भोग से विरत करने के लिए कोई उपदेश दे सकेंगे।’’
‘‘मैं उनसे प्रजा की शिक्षा के विषय में बात करना चाहता हूँ।’’
‘‘क्या कहेंगे कि पाठशालाओं में वेद पढ़ाओ ?’’
‘‘आप तो ऐसे कह रहे हैं, जैसे वेद पढ़ना कोई मूर्खता की बात है। पाठशालाओं में वेद पढ़े और समझे जाते तो भारत कभी पराधीन नहीं होता।’’ स्वामी बोले, ‘‘वेदों में अध्यात्म भी है; किंतु जीवन को समझने और उसके अनेक क्षेत्रों का ज्ञान भी बहुत है। यदि हमने वेदों से गणित पढ़ा होता, तो आज भी हम संसार के शीर्ष पर होते।’’
‘‘आप शिक्षाविद् हैं क्या ?’’
‘‘मैं तो एक संन्यासी हूँ।’’ स्वामी मुस्कराए, ‘‘किंतु संन्यासी भगवान् का चिंतन करते हुए, भगवान् के बनाए हुए जीवों के हित का भी चिंतन करता है। अत: शिक्षा के विषय में सोचना आवश्यक है।
‘‘पर हमारे राजा अपनी प्रजा की भौतिक उन्नति भी चाहते हैं।’’ मणिभाई ने कहा, ‘‘वे उसे ज्ञानी ही नहीं, संपन्न और समृद्ध भी देखना चाहते हैं।’’
‘‘मैं भी, वही चाहता हूँ।’’
मणिभाई स्तब्ध रह गए, ‘‘अच्छा ! मैं दीवान जी से इसकी चर्चा करता हूँ। आशा है, वे महाराज से आपकी भेंट का प्रबंध करा देंगे।’’
स्वामी को जिस समय सायाजी के साथ भेंट के लिए लाया गया, वे एक छोटे कमरे में अपने दीवान के साथ थे। एक प्रकार से वहाँ एकान्त ही था। स्वामी के मन में पहली बात यही आई कि सायाजी उनसे सार्वजनिक रूप से अपने दरबार में मिलना नहीं चाहते थे। इस भेंट में भी जैसे एक प्रकार की गोपनीयता थी।
‘‘आइए स्वामी जी, सायाजी राव गायकवाड़ अपने स्थान से उठ खड़े हुए। उन्होंने हाथ जोड़कर प्रणाम किया। संन्यासी के चरण नहीं छुए।
स्वामी ने हाथ उठाकर आशीर्वाद दिया, ‘‘यशस्वी हो राजन् ! भगवान् आपके हाथों प्रजा का कल्याण करवाएँ।’’
‘‘विराजिए।’’ सायाजी ने कहा, ‘‘आपके ठहरने की व्यवस्था में कोई त्रुटि तो नहीं है ?’’
‘‘कोई त्रुटि नहीं है। मैं बहुत सुख से हूँ। स्वामी बोले, मैं अपने लिए कुछ माँगने नहीं आया।
सायाजी ने कुछ आश्चर्य से स्वामी की ओर देखा, धर्मचर्चा करने आए हैं ? मेरी उसमें कोई रुचि नहीं है।
आया तो मैं धर्मचर्चा करने ही हूं।’’ स्वामी हँसे, ‘‘किंतु मोक्ष की चर्चा नहीं। मैं राजधर्म की चर्चा करने आया हूँ राजन् !’’
सायाजी चुपचाप उनकी ओर देखते रहे।
‘‘अंग्रेज हम पर शासन क्यों कर रहे हैं ?’’ स्वामी ने कहा, ‘‘वे अध्यात्म में तो हमसे उन्नत नहीं है।’’
‘‘ठीक कह रहे हैं आप।’’ सायाजी ने कहा, ‘‘वे भौतिक शक्ति में हमसे बढ़े-चढ़े हैं।’’
‘‘तो आप अपनी प्रजा के भौतिक विकास का प्रयत्न करें।’’ स्वामी जी बोले, ‘‘इसलिए कह रहा हूँ, क्योंकि हमारे भारतीय राजाओं को अपनी प्रजा के विकास से कहीं अधिक अंग्रेजों की प्रसन्नता की चिंता है। आप उनसे कुछ भिन्न हैं। आपने प्रजा को आधुनिक शिक्षा देने का प्रयत्न किया है।’’
प्राचीन भारतीय शिक्षा न देकर क्या मैंने अच्छा किया ?’’
‘‘गुरुकुल प्रणाली को भी पूर्णत: छोड़ना नहीं चाहिए। स्वामी बोले, न ही संस्कृत और आधुनिक भारतीय भाषाओं का त्याग करना चाहिए।’’
‘‘दोनों बातें कैसे संभव है ?’’
‘‘अन्धं तम: प्रविशन्ति येऽविद्यामुपासते।
ततो भूय इव ते तमो य उ विद्यायां रता:।।’’
ततो भूय इव ते तमो य उ विद्यायां रता:।।’’
‘‘ईशावास्योपनिषद् का यह मंत्र मैंने भी पढ़ा है,
‘‘सायाजी ने कहा, ‘‘किंतु इसकी
यहाँ क्या
सार्थकता है ?’’
‘यह संसार चैतन्य और जड़ प्रकृति दोनों से बना है।’’ स्वामी ने कहा, ‘‘मेरे गुरु कहा करते थे कि ब्रह्म ही जब सक्रिय होता है, तो वह प्रकृति बन जाता है। इसलिए हम दोनों को एक ही मानकर चले। इनमें से किसी एक की भी उपेक्षा न करें।’’ स्वामी ने रुककर सायाजी को देखा, ‘‘हमने विद्या को अपनाया और अविद्या को एकदम छोड़ दिया। अध्यात्म को अपनाया और संसार को छोड़ दिया। वस्तुत: हमने अध्यात्म को भी ठीक से नहीं अपनाया। मैं कहना चाहता हूँ कि संसार की उपेक्षा न हो। प्राचीन ज्ञान के साथ हम नए ज्ञान को भी जोड़े। देश में विज्ञान के विश्वविद्यालय खुलें। कल-कारखाने आएँ। उद्योग फैले। गुजराती व्यापार में तो चतुर हैं, किंतु उद्योग में उनका मन नहीं लगता। आप अपने राज्य में वेद भी पढ़ाएँ और कल-कारखाने भी बढाएँ।
मैं आपको देखकर चकित हूँ स्वामी जी !’’ सायाजी के स्वर में अपार श्रद्धा थी, ‘‘नहीं तो संन्यासी आकर कहते हैं कि मंदिर बनवा दो, धर्मशाला खुलवा दो। वे पाठशाला और औषधालय की भी बात कर सकते हैं; किंतु उद्योगधंधे..इनकी तो कभी चर्चा ही नहीं हुई।’’
‘‘मैं समझता हूँ राजन् ! हमारे देश को व्यापार से अधिक उद्योग की आवश्यकता है।’’ स्वामी ने कहा, ‘‘औद्योगिक उत्पादन के क्षेत्र में हमें अंग्रेजों और अमेरिकियों से प्रतिस्पर्धा करनी होगी। आवश्यकता है कि औद्योगिक प्रशिक्षणशालाएँ खुलें, इंजीनियिरिंग कॉलेजों की स्थापना हो।’’
अवाक् सायाजी स्वामी को देखभर रहे थे। थोड़ी देर के पश्चात् बोले, ‘‘आप जानते हैं, मेरे पूर्ववर्ती गायकवाड़ को अंग्रेज रेजिडेंट की हत्या का आरोप लगाकर राज्य से हटाया गया।’’
‘‘जानता हूँ।’’
‘‘यदि हत्या का प्रयत्न किया गया तो क्यों किया गया ?’’
‘‘स्वाधीनता के लिए।’’
‘‘अंग्रेजों की गृध्र दृष्टि वडोदरा पर लगी है। वडोदरा में पत्ता भी खड़कता है तो अंग्रेजों को विद्रोह की गंध आने लगती है।’’ सायाजी ने कहा, ‘‘और भारतीयों की शिक्षा-मात्र से अंग्रेजों का अहित होता है। वे चाहते हैं कि भारतीय लोग अनपढ़ और अचेत बने रहें, ताकि वे सुख-शांति से राज कर सकें।’’
‘‘जानता हूँ।’’
‘‘तो यदि मैं शिक्षा का प्रचार करता हूँ तो वह अंग्रेजों की दृष्टि में विद्रोह है। अत: मुझे सावधान होकर चलना पड़ता है।’ सायाजी ने कहा, ‘‘मैं हिंदू साधु संन्यासियों से नहीं मिलता। धर्माचार्यों का स्वागत नहीं करता, क्योंकि उससे अंग्रेजों को देशभक्ति की गंध आती है।..’’
स्वामी को लगा कि उनका अनुमान एकदम सत्य था।
राजन् ! कोई भी काम करने के लिए संगठन आवश्यक है। राजा भी चाहे तो अकेला कोई काम नहीं कर सकता, उसके लिए उसे एक तंत्र की स्थापना करनी पड़ती है। स्वामी बोले, क्या आपके उच्चाधिकारी भी जन सामान्य को जागरुक भारतीय बनाने में आपके सहायक हैं ?
‘‘वस्तुत: यह काम तो मेरे राज सँभालने से पहले ही आरंभ हो गया था। सायाजी ने कहा, टी.माधव राव बहुत अच्छे प्रशासक थे। उन्होंने एक अच्छा संगठित दल मेरे लिए तैयार कर दिया था।’’ सायाजी ने रुककर स्वामी की ओर देखा, ‘‘मैं नहीं चाहता कि मैं अंग्रेजों की दृष्टि में खटकने लगूँ। इसीलिए वडोदरा का आधुनिकीकरण बहुत खुले रूप से नहीं करना चाहता। अब मैं एक ऐसे सहायक की खोज में हूँ, जो योग्य हो, सेवापरायण हो, देखने-सुनने में पूरी तरह अंग्रेज और अंग्रेजियत समर्थक दिखाई पड़े, किंतु जिसकी आत्मा पूर्णता: भारतीय हो।’’
स्वामी मौन बैठे रहे।
‘‘आपको लगता है कि ऐसा कोई व्यक्ति मिल सकता है ?’’
मेरा विचार है, बंगाल से ऐसे कई युवक निकलेंगे। स्वामी बोले, वहाँ के लोग जिस प्रकार पाश्चात्य शिक्षा और ईसाई धर्म की ओर आकृष्ठ हुए हैं, उसकी प्रतिक्रिया भी अवश्यंभावी है। अंग्रेजों के निकट पहुँचकर वे उनका निर्मम और नृशंस रूप देखेंगे तो अपने आप उनसे घृणा करने लगेंगे।
प्रभु आपके वचन को सत्य करें। राजा ने कहा।
‘‘अच्छा राजन् !’’ स्वामी उठ खड़े हुए, ‘‘चलता हूँ। मैं जो अपेक्षाएँ लेकर आया था आप पहले से ही उनका कार्यान्वयन कर रहे हैं। भगवान आपको आपकेलक्ष्य के निकट पहुँचाएँ। वडोदरा अंग्रेजों से रुष्ट युवकों की विहारस्थली बने।’’
सायाजी राव गायकवाड़ ने चौककर देखा, यह संन्यासी अंग्रेजों का भेदिया तो नहीं है ? या फिर यह कोई भविष्यवाणी ही तो नहीं कर रहा ?
‘‘मुझे बताया गया है कि आप वडोदरा छोड़कर जा रहे हैं।’’ अंतत: सायाजी ने कहा।
‘‘जाना तो मुझे वैसे भी था, स्वामी ने कहा, ‘‘किंतु आज आपसे चर्चा कर यहाँ से शीघ्र जाने का मेरा संकल्प और भी दृढ़ हुआ है।’’
‘‘क्यों ?’’
‘‘कहाँ जाएँगे ?’’
‘‘लींबड़ी के ठाकुर जसवंतसिंह महाबलेश्वर आ रहे हैं। उनकी इच्छा है कि मैं कुछ दिन उनके निकट रहूँ।’’
‘‘शायद अंग्रेजों की उन पर अभी वक्र दृष्टि नहीं है।’’ स्वामी बोले।
‘यह संसार चैतन्य और जड़ प्रकृति दोनों से बना है।’’ स्वामी ने कहा, ‘‘मेरे गुरु कहा करते थे कि ब्रह्म ही जब सक्रिय होता है, तो वह प्रकृति बन जाता है। इसलिए हम दोनों को एक ही मानकर चले। इनमें से किसी एक की भी उपेक्षा न करें।’’ स्वामी ने रुककर सायाजी को देखा, ‘‘हमने विद्या को अपनाया और अविद्या को एकदम छोड़ दिया। अध्यात्म को अपनाया और संसार को छोड़ दिया। वस्तुत: हमने अध्यात्म को भी ठीक से नहीं अपनाया। मैं कहना चाहता हूँ कि संसार की उपेक्षा न हो। प्राचीन ज्ञान के साथ हम नए ज्ञान को भी जोड़े। देश में विज्ञान के विश्वविद्यालय खुलें। कल-कारखाने आएँ। उद्योग फैले। गुजराती व्यापार में तो चतुर हैं, किंतु उद्योग में उनका मन नहीं लगता। आप अपने राज्य में वेद भी पढ़ाएँ और कल-कारखाने भी बढाएँ।
मैं आपको देखकर चकित हूँ स्वामी जी !’’ सायाजी के स्वर में अपार श्रद्धा थी, ‘‘नहीं तो संन्यासी आकर कहते हैं कि मंदिर बनवा दो, धर्मशाला खुलवा दो। वे पाठशाला और औषधालय की भी बात कर सकते हैं; किंतु उद्योगधंधे..इनकी तो कभी चर्चा ही नहीं हुई।’’
‘‘मैं समझता हूँ राजन् ! हमारे देश को व्यापार से अधिक उद्योग की आवश्यकता है।’’ स्वामी ने कहा, ‘‘औद्योगिक उत्पादन के क्षेत्र में हमें अंग्रेजों और अमेरिकियों से प्रतिस्पर्धा करनी होगी। आवश्यकता है कि औद्योगिक प्रशिक्षणशालाएँ खुलें, इंजीनियिरिंग कॉलेजों की स्थापना हो।’’
अवाक् सायाजी स्वामी को देखभर रहे थे। थोड़ी देर के पश्चात् बोले, ‘‘आप जानते हैं, मेरे पूर्ववर्ती गायकवाड़ को अंग्रेज रेजिडेंट की हत्या का आरोप लगाकर राज्य से हटाया गया।’’
‘‘जानता हूँ।’’
‘‘यदि हत्या का प्रयत्न किया गया तो क्यों किया गया ?’’
‘‘स्वाधीनता के लिए।’’
‘‘अंग्रेजों की गृध्र दृष्टि वडोदरा पर लगी है। वडोदरा में पत्ता भी खड़कता है तो अंग्रेजों को विद्रोह की गंध आने लगती है।’’ सायाजी ने कहा, ‘‘और भारतीयों की शिक्षा-मात्र से अंग्रेजों का अहित होता है। वे चाहते हैं कि भारतीय लोग अनपढ़ और अचेत बने रहें, ताकि वे सुख-शांति से राज कर सकें।’’
‘‘जानता हूँ।’’
‘‘तो यदि मैं शिक्षा का प्रचार करता हूँ तो वह अंग्रेजों की दृष्टि में विद्रोह है। अत: मुझे सावधान होकर चलना पड़ता है।’ सायाजी ने कहा, ‘‘मैं हिंदू साधु संन्यासियों से नहीं मिलता। धर्माचार्यों का स्वागत नहीं करता, क्योंकि उससे अंग्रेजों को देशभक्ति की गंध आती है।..’’
स्वामी को लगा कि उनका अनुमान एकदम सत्य था।
राजन् ! कोई भी काम करने के लिए संगठन आवश्यक है। राजा भी चाहे तो अकेला कोई काम नहीं कर सकता, उसके लिए उसे एक तंत्र की स्थापना करनी पड़ती है। स्वामी बोले, क्या आपके उच्चाधिकारी भी जन सामान्य को जागरुक भारतीय बनाने में आपके सहायक हैं ?
‘‘वस्तुत: यह काम तो मेरे राज सँभालने से पहले ही आरंभ हो गया था। सायाजी ने कहा, टी.माधव राव बहुत अच्छे प्रशासक थे। उन्होंने एक अच्छा संगठित दल मेरे लिए तैयार कर दिया था।’’ सायाजी ने रुककर स्वामी की ओर देखा, ‘‘मैं नहीं चाहता कि मैं अंग्रेजों की दृष्टि में खटकने लगूँ। इसीलिए वडोदरा का आधुनिकीकरण बहुत खुले रूप से नहीं करना चाहता। अब मैं एक ऐसे सहायक की खोज में हूँ, जो योग्य हो, सेवापरायण हो, देखने-सुनने में पूरी तरह अंग्रेज और अंग्रेजियत समर्थक दिखाई पड़े, किंतु जिसकी आत्मा पूर्णता: भारतीय हो।’’
स्वामी मौन बैठे रहे।
‘‘आपको लगता है कि ऐसा कोई व्यक्ति मिल सकता है ?’’
मेरा विचार है, बंगाल से ऐसे कई युवक निकलेंगे। स्वामी बोले, वहाँ के लोग जिस प्रकार पाश्चात्य शिक्षा और ईसाई धर्म की ओर आकृष्ठ हुए हैं, उसकी प्रतिक्रिया भी अवश्यंभावी है। अंग्रेजों के निकट पहुँचकर वे उनका निर्मम और नृशंस रूप देखेंगे तो अपने आप उनसे घृणा करने लगेंगे।
प्रभु आपके वचन को सत्य करें। राजा ने कहा।
‘‘अच्छा राजन् !’’ स्वामी उठ खड़े हुए, ‘‘चलता हूँ। मैं जो अपेक्षाएँ लेकर आया था आप पहले से ही उनका कार्यान्वयन कर रहे हैं। भगवान आपको आपकेलक्ष्य के निकट पहुँचाएँ। वडोदरा अंग्रेजों से रुष्ट युवकों की विहारस्थली बने।’’
सायाजी राव गायकवाड़ ने चौककर देखा, यह संन्यासी अंग्रेजों का भेदिया तो नहीं है ? या फिर यह कोई भविष्यवाणी ही तो नहीं कर रहा ?
‘‘मुझे बताया गया है कि आप वडोदरा छोड़कर जा रहे हैं।’’ अंतत: सायाजी ने कहा।
‘‘जाना तो मुझे वैसे भी था, स्वामी ने कहा, ‘‘किंतु आज आपसे चर्चा कर यहाँ से शीघ्र जाने का मेरा संकल्प और भी दृढ़ हुआ है।’’
‘‘क्यों ?’’
‘‘कहाँ जाएँगे ?’’
‘‘लींबड़ी के ठाकुर जसवंतसिंह महाबलेश्वर आ रहे हैं। उनकी इच्छा है कि मैं कुछ दिन उनके निकट रहूँ।’’
‘‘शायद अंग्रेजों की उन पर अभी वक्र दृष्टि नहीं है।’’ स्वामी बोले।
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